साल 2021 का पहला व्रत है सफला एकादशी, जानिये पूजन विधि और व्रत कथा

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साल 2021 की पहली एकादशी सफला एकादशी है। काफी समय बाद ऐसा वर्ष आया है जब भगवान श्रीविष्णु के व्रत से साल की शुरुआत हुई है। वैसे हिन्दू पंचांग के मुताबिक पौष माह की कृष्ण एकादशी को सफला एकादशी कहा जाता है। सफला एकादशी के दिन भगवान श्रीनारायणजी की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान श्रीनारायण के सभी अवतारों का पूजन करने से मनोवांछित लाभ मिलता है।
इस दिन तुलसी के पत्ते, अगरबत्ती, नारियल, सुपारी, आंवला, अनार, लौंग और मिष्ठान आदि से भगवान श्री नारायणजी का विधिवत पूजन करना चाहिए। सफला एकादशी के दिन दीप-दान तथा रात्रि जागरण का बड़ा महत्व है। सफला एकादशी इस वर्ष वैसे तो 9 जनवरी को पड़ रही है लेकिन एकादशी तिथि 8 जनवरी की रात्रि 9 बजकर 40 मिनट से शुरू हो जायेगी जोकि 9 जनवरी सायं 07 बजकर 15 मिनट तक रहेगी।

 

एकादशी के दिन भगवान सत्यनारायण की पूजा का भी विशेष लाभ होता है। सफला एकादशी का व्रत करने वाले भक्तों को चाहिए कि वह प्रातः उठ कर स्नान आदि से निवृत्त होकर घर में गंगा जल का छिड़काव करें और पूजा स्थल की अच्छी तरफ से साफ-सफाई के बाद विधि-विधान से पूजन करें और फिर कथा सुनें। इस दिन जरूरतमंदों को यथाशक्ति दान देना भी फलदायी बताया गया है। सफला एकादशी के दिन अपने अंदर की किसी बुराई का भी त्याग करें तो जीवन में सफलता तेजी के साथ मिलती चली जायेगी।
सफला एकादशी व्रत कथा
राजा महिष्मन् के चार बेटे थे। सबसे छोटा बेटा लुम्पक बहुत दुष्ट तथा पापी था। वह राज्य के धन को अनाप-शनाप खर्च करता था। राजा ने उसे कई बार समझाया, किन्तु वह नहीं माना। जब उसके कुकर्म हद से ज्यादा बढ़ गये तो राजा ने दुखी होकर उसे अपने राज्य से निकाल दिया। जंगलों में भटकते हुए भी उसने अपनी पुरानी आदतें नहीं बदलीं। एक बार लूटमार के दौरान लुम्पक को तीन दिन तक भूखा रहना पड़ा। भूख से परेशान होकर उसने एक साधु की कुटिया में चोरी करने का प्रयास किया। परन्तु उस दिन सफला एकादशी होने के कारण उसे वहां कुछ भी खाने को नहीं मिल सका और वह महात्मा की नजरों से भी नहीं बच सका। अपने तप से महात्मा ने सब कुछ समझ लिया था। इसके बावजूद उन्होंने उसे वस्त्र आदि दिये और मीठी वाणी से सत्कार किया।
महात्मा के इस व्यवहार से लुम्पक की बुद्धि में परिवर्तन आ गया। वह सोचने लगा, ”यह कितना अच्छा मनुष्य है। मैं तो इसके घर चोरी करने आया था, पर इसने मेरा सत्कार किया। मैं भी तो मनुष्य हूँ, मगर कितना दुराचारी तथा पापी हूँ। उसे अपनी भूल का अहसास हो गया। वह क्षमायाचना करता हुआ साधु के चरणों पर गिर पड़ा तथा उन्हें स्वयं ही सब कुछ सच-सच बता दिया। तब साधु के आदेश से लुम्पक वहीं रहने लगा। वह साधु द्वारा लाई हुई भिक्षा से जीवन यापन करता। धीरे-धीरे उसके चरित्र के सारे दोष दूर हो गये। वह महात्मा की आज्ञा से एकादशी का व्रत भी करने लगा। जब वह बिलकुल बदल गया तो महात्मा ने उसके सामने अपना असली रूप प्रकट किया।

 

महात्मा के वेश में वह महाराज महिष्मन् ही थे। पुत्र को सद्गुणों से युक्त देखकर वे उसे राजभवन ले आये और उसे राज-काज सौंप दिया। प्रजा उसके चरित्र में परिवर्तन देखकर हैरान रह गयी। उसने सारा राज-काज संभाल कर आदर्श प्रस्तुत किया। लुम्पक आजीवन सफला एकादशी का व्रत तथा प्रचार करता रहा। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि व्यक्ति पर संगति का बड़ा प्रभाव पड़ता है। दुष्टों की संगति ने उसे दुष्ट बना दिया था लेकिन महात्मा की संगति के कारण वह महात्मा बन गया।
-शुभा दुबे
आकाश भगत

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