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तिलका मांझी : भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी

भारत माता ने कई वीर सपूतों को जना है जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध बगावतों में आदिवासी महानायकों की अतुलनीय और महत्ती भूमिका रही है। लेकिन दुःखद है कि इतिहास के पन्नों में उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसका वे हकदार थे।

 

ऐसे ही एक आदिवासी महानायक थे जिन्होंने 1857 की क्रांति से 72 साल पहले ही 13 जनवरी 1785 को अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।

 

भारत का वह वीर सपूत था जबरा पहाड़िया उर्फ़ तिलका मांझी। तिलका मांझी पर ऐतिहासिक दस्तावेजों का घोर अभाव है। महान लेखिका महाश्वेता देवी ने इनके जीवन और विद्रोह को अपने बांग्ला उपन्यास शालगिरर डाके में चित्रित किया है।

 

इतिहास के जानकार मानते हैं कि तिलका मांझी का नाम भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रुप में लिया जाना चाहिए था। इतिहासकारों ने देश के लिए उनकी भूमिका और बलिदानों का यथोचित मुल्यांकन नहीं किया है।

 

  • जीवन परिचय :

तिलका मांझी का जन्म बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज के निकट तिलकपुर नामक गाँव में एक आदिवासी परिवार में 11 फरवरी 1750 को हुआ था। इनके पिता का नाम सुंदरा मूर्मू था। इनका मूल नाम जबरा पहाड़िया था। अंग्रेजों ने ही इन्हें तिलका मांझी नाम दिया।

 

पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ लाल-लाल आँखों वाला गुस्सैल व्यक्ति होता है। चूँकि वे ग्राम प्रधान थे, पहाड़िया आदिवासी समुदाय की परंपरा के अनुसार उन्हें मांझी कहा जाता था। आदिवासी सभ्यता की छाया में बचपन में ही तिलका मांझी ने तीर-धनुष चलाने, बड़े-बड़े वृक्षों पर चढ़़ने और जंगली जानवरों का शिकार करने की कला में निपुणता प्राप्त कर ली थी।

युवावस्था में अपने परिवार और अपने समाज पर अंग्रेजी सत्ता एवं स्थानीय जमींदारों की यातनाओं और अत्याचारों को देखकर बग़ावत के लिए उनके मन में विद्रोह की सनक पैदा हुई। उन्होंने आदिवासी युवाओं को एकत्रित किया। कहा जाता है कि उन्होंने आदिवासी युवाओं की एक सेना तैयार कर ली थी। आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व करते हुए तिलका मांझी ने अंग्रेजों और उनके चापलूस जमींदारों व सामंतों पर लगातार हमले कर उनकी नींद उड़ा दी।

 

बंगाल के भीषण अकाल (1770-73) के समय ब्रिटिश खजाना लूटकर उसे गरीबों और पीड़ितों में बाँट दिया। पहाड़िया सरदारों के साथ मिलकर उन्होंने 1778 में रामगढ़ कैंट को अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त कराया। स्थिति की भयावहता को समझते हुए भागलपुर के मैजिस्ट्रेट आगस्टस क्लीवलैंड को तिलक की गिरफ्तारी का आदेश दिया गया था। लेकिन 1784 में ही तिलका मांझी ने क्लीवलैंड को जहरीले तीर से मार गिराया। ब्रिटिश मैजिस्ट्रेट की हत्या ने अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।

 

क्लीवलैंड की हत्या के बाद सर आयर कूटे के नेतृत्व में तिलका मांझी की सेना पर जबरदस्त हमला किया गया जिसमें कई आदिवासी युवक शहीद हो गए। तिलका मांझी भी पकड़े गए। कहा जाता है कि मीलों घसीट कर उन्हें भागलपुर लाया गया था। लहू-लुहान होकर भी वे जीवित थे। अंग्रेजों ने एक वटवृक्ष पर लटका कर उन्हें फाँसी दे दी। इस तरह आज से 236 वर्ष पहले ही हमारे देश के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी सदा-सदा के लिए अमर हो गए। मगर उनकी शहादत और वीरगाथा कई युवाओं को प्रेरित करती रही और उनके गीत ‘ हंसते हंसते चढ़बो फांसी..’ गाते हुए आज़ादी के दीवाने देश के लिए शहीद हो गए।

भारत के इस महान सपूत और प्रथम स्वतंत्रता सेनानी को शत् – शत् नमन ।

 

आलेख : डाॅ. जितेंद्र आर्यन
राजनीतिशास्त्र विभाग
बिनोद बिहारी महतो कोयलांचल विश्वविद्यालय, धनबाद (झारखण्ड)।

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