नौकरशाहों का राजनीति में आना पार्टियों के लिए इतना जरूरी क्यों?

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जब से गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी अरविंद कुमार शर्मा ने वीआरएस लेकर राजनीति में प्रवेश किया है, इस बात को लेकर चर्चा फिर से शुरू हो गई है कि राजनीति में नौकरशाहों की सीधी एंट्री पर आखिर इतनी चुप्पी क्यों है? क्यों सभी सरकारे नौकरशाहों के लिए राजनीतिक एंट्री के दरवाजे सीधे-सीधे खुला रखना चाहते हैं? आखिर सभी दल इस मसले को लेकर इतने शांत क्यों रहते हैं? इस बात को भी लेकर भी बहस है कि वीआरएस लेकर नौकरशाहों या फिर दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों का राजनीति में आना संस्था की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाते हैं?
अरविंद कुमार शर्मा को लेकर इस बात की चर्चा तेज है कि उन्हें आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है। हालांकि यह चर्चा पहली बार नहीं हो रही है। बिहार चुनाव से पहले जब गुप्तेश्वर पांडे ने भी वीआरएस लिया था तब भी इस तरीके की चर्चा शुरू हो गई थी। हालांकि यह चर्चा कभी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाई है। चुनाव बाद सब कुछ शांति हो जाता है।

 

यह सवाल इसलिए भी उठता है क्योंकि हमने कई मौकों पर देखा है कि नौकरशाह, राज्यपाल, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस और उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति तत्काल राजनीति में आ जाते हैं। हालांकि संविधान में इसको लेकर किसी बात पर रोक तो नहीं लगाई गई है लेकिन कहीं ना कहीं संवैधानिक संस्थाओं पर इससे सवाल जरूर उठने लगते हैं और उसकी विश्वसनीयता में कमी आती है। सालों में हमने देखा है कि यह एक परंपरा सी बन गई है जब राज्य, केंद्र के चुनाव से पहले संवैधानिक संस्थाओं में बैठे व्यक्ति या फिर नौकरशाह वीआरएस लेकर राजनीति में एंट्री मारने को  इच्छुक हो जाते हैं। पर इसके बाद उन पर इस बात को लेकर आरोप लगने लगते हैं कि उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए की खास दल से नजदीकी रखी है। इस वजह से उनकी निष्ठा भी सवाल उठने लगते हैं।

 

रिटायरमेंट या फिर वीआरएस लेकर तुरंत चुनाव में उतरने पर राजनीतिक दल पहले तो विरोध करते थे। लेकिन आजकल उनकी चुप्पी शायद इस बात की इजाजत दे रही है। तभी तो इस तरीके की स्थिति सभी पार्टियों में होती है। हालांकि, चुनाव आयोग ने इस परंपरा को गलत माना है। आयोग ने तो यह तक सिफारिश कर दी है कि वीआरएस, रिटायरमेंट लेने के कम से कम 2 साल बाद ही कोई राजनीति में आए। लेकिन चुनाव आयोग की इस सिफारिश को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है ना कि आखिर राजनीतिक दल इस पर रोक लगाने को तैयार क्यों नहीं होते? दरअसल, इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि आम जनता तक अपने काम को पहुंचाने के लिए सबसे अच्छा तरीका पार्टियों के पास नौकरशाही ही होते हैं। नौकरशाह के जरिए ही वह अपनी स्थिति को जमीन पर मजबूत कर पाती हैं। ऐसे में कई नौकरशाहों के साथ उनके संबंध स्थापित हो जाते हैं और यही कारण है कि फिर उन्हें पार्टी में लेना उनके लिए मजबूरी थी बन जाती है।

 

उदाहरण के तौर पर अरविंद कुमार शर्मा को ही ले लीजिए, अरविंद कुमार शर्मा 15 सालों तक जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब उनके साथ काम करते रहे और उनके एजेंडे को ब्यूरोक्रेसी के जरिए जमीन पर उतारते रहे। पीएम बनने के बाद भी मोदी ब्यूरोक्रेसी के जरिए ही अपने कामों को जमीन पर पहुंचाने की कोशिश करते रहे। ऐसे में नौकरशाहों की जरूरत उन्हें अधिक रहती है। राज्यपालों की स्थिति में देखें तो वैसे तो राज्यपाल पहले किसी ना किसी पार्टी के कार्यकर्ता जरूर रहते हैं। लेकिन संवैधानिक पद पर बैठने के बाद उनका निष्पक्ष होना बेहद जरूरी है। हालांकि कई मौके पर हमने देखा है कि राज्यपाल जैसे पद से रिटायर होने के बाद कई लोगों ने सीधे-सीधे राजनीति में एंट्री मार ली है। राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कल्याण सिंह को ही देख लीजिए, रिटायरमेंट के तुरंत बाद वह भाजपा में शामिल हो गए और अपना आक्रमक रवैया जारी रखा। राम नाईक भी रिटायरमेंट के बाद भाजपा में शामिल हो गए।
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आकाश भगत

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