जानें क्यों हर 12 साल में बदल जाती हैं भगवान जगन्नाथ की मूर्तियां? किन लकड़ियों से बनती हैं ये दिव्य प्रतिमाएं

भारत के आध्यात्मिक हृदय में स्थित पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर, सिर्फ एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि आस्था और परंपरा का एक जीवंत प्रतीक है। यह मंदिर, जो भगवान जगन्नाथ यानी श्रीकृष्ण को समर्पित है, हिन्दुओं के चार धाम में से एक है। यहां भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनके बड़े भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा तीनों की ही भव्य मूर्तियां विराजमान हैं। लेकिन इस मंदिर से जुड़ी एक अनूठी और रहस्यमयी परंपरा है – इन मूर्तियों को हर 12 साल में बदलने की प्रथा। आखिर क्या है इस अद्भुत बदलाव का रहस्य और किन लकड़ियों से बनती हैं ये दिव्य प्रतिमाएं? आइए जानते हैं।
12 साल में क्यों बदलती है मूर्ति?
भगवान जगन्नाथ की मूर्तियों को बदलने की इस परंपरा को ‘नवकलेवर’ कहा जाता है। ‘नवकलेवर’ का शाब्दिक अर्थ है ‘नया शरीर’। इसके अंतर्गत जगन्नाथ मंदिर में स्थापित भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की पुरानी मूर्तियों को विधि-विधान से बदलकर नई मूर्तियों को स्थापित किया जाता है।
यह सवाल मन में आता है कि आखिर हर 12 साल बाद ही क्यों? इसका मुख्य कारण यह है कि जगन्नाथ जी की मूर्तियां लकड़ी की बनी हुई हैं और प्राकृतिक रूप से उनके क्षय होने का डर रहता है। लकड़ी की बनी होने के कारण समय के साथ वे खराब हो सकती हैं। इसलिए, इनकी दिव्यता और अखंडता को बनाए रखने के लिए, इन्हें हर 12 साल बाद बदला जाता है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और इसमें प्रकृति के साथ आध्यात्मिक सामंजस्य का गहरा संदेश छिपा है।
‘नवकलेवर‘ की गुप्त परंपरा
‘नवकलेवर’ की परंपरा अत्यंत गुप्त और पवित्र तरीके से संपन्न की जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में गोपनीयता का विशेष ध्यान रखा जाता है। स समय मूर्तियां बदली जाती हैं उस समय पूरे शहर की बत्तियां बंद कर दी जाती हैं और हर जगह अंधेरा कर दिया जाता है। यह इस वजह से किया जाता है जिससे मूर्तियों को बदलने की प्रक्रिया को गोपनीय रखा जा सके। मूर्तियों को बदलते समय केवल एक मुख्य पुजारी वहां मौजूद होता है और उसकी आंखों में भी पट्टी बांध दी जाती है। यह इसलिए किया जाता है जिससे कि मूर्तियों को बदलने की प्रक्रिया पूरी तरह से गोपनीय रहे।
भगवान् की मूर्तियां बनाने में होता है नीम की लकड़ी का उपयोग
नई मूर्तियों के निर्माण के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ियों का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण होता है। ये मूर्तियां विशेष रूप से नीम की लकड़ी से बनाई जाती हैं।
जगन्नाथ मंदिर के मुख्य पुजारी और विद्वान ब्राह्मण सबसे पहले नई मूर्तियों के लिए सही पेड़ों का चुनाव करते हैं। इस चुनाव में कई नियमों का पालन किया जाता है:
• पेड़ नीम के ही होने चाहिए।
• वे कम से कम 100 साल पुराने हों।
• सबसे महत्वपूर्ण, उनमें किसी प्रकार का दोष न हो। पेड़ स्वस्थ और पवित्र माना जाना चाहिए।
इन चुने हुए पेड़ों को विशेष अनुष्ठानों के बाद काटा जाता है और मंदिर में लाया जाता है। फिर कुशल शिल्पकार और पुजारी मिलकर इन पवित्र लकड़ियों को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन के दिव्य आकार में गढ़ते हैं। यह सिर्फ मूर्ति निर्माण नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जहां देवत्व को लकड़ी के माध्यम से नया रूप दिया जाता है। पुरानी मूर्तियों को भी सम्मानपूर्वक समाधि दी जाती है।
यह परंपरा न केवल भगवान की मूर्तियों के संरक्षण का माध्यम है, बल्कि यह जीवन के चक्र, परिवर्तन और नवीनीकरण के सनातन सत्य का भी प्रतीक है। हर 12 साल में एक नया शरीर धारण करने वाले भगवान जगन्नाथ, हमें सिखाते हैं कि जीवन में परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर चीज़ है।