Nil Sasthi 2023: नील षष्ठी पूजा क्या है? यह क्यों किया जाता है? पश्चिम बंगाल में इसका क्या महत्व है? इस नीली पूजा के लिए अपेक्षित सावधानियां क्या-क्या हैं? जानिए
पुराने बंगाली वर्ष के अंत और नए बंगाली वर्ष की शुरुआत के क्षण में जो उत्सव का माहौल होता है, वह नील षष्ठी पूजा के आयोजन से और अधिक बढ़ जाता है। वर्ष 2023 में 13 अप्रैल गुरुवार को नील षष्ठी पूजा मनाया जाता है। गत बुद्धवार को चरक था, और अगला दिन यानी गुरुवार को बंगाली बैसाख का पहला दिन है, जिस दिन नील षष्ठी पूजा का आयोजन भी धूमधाम से होता है।
बंगला संस्कृति के जानकार बताते हैं कि पुराने बंगाली वर्ष के अंत और नए बंगाली वर्ष की शुरुआत के क्षण में यत्र तत्र सर्वत्र पूरे पश्चिम बंगाल में जो उत्सव का माहौल होता है, उसी मौके पर यह नीली पूजा भी की जाती है। ऐसे में किसी भी व्यक्ति के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर नील षष्टी यानी नीली पूजा क्यों की जाती है, इस नीली पूजा की शुरुआत कैसे हुई, इसको लेकर किस-किस तरह की कहानियां प्रचलित हैं।
इस बारे में कुछ लोग बतातेते हैं कि शिव षष्ठी तो भगवान शिव की शादी का दिन है। तो फिर यह भी सवाल उठता है कि महाशिवरात्रि क्या है? खैर, इसकी भी एक और कहानी है, जो हम आगे बताएंगे। वहीं, कुछ लोग बताते हैं कि यह दिन संतान की शुभता से जुड़ा हुआ परम पावन दिन है। उन दिन की भी एक अलग कहानी है। यह भी लोक मान्यता है कि अगर इस पूजा में कुछ छोटे-छोटे नियमों का अनुपालन नहीं किया जाता है तो भगवान भोलेनाथ शिव बहुत ही नाराज हो जाते हैं। इसलिए लोग पूरी नेम-निष्ठा से यह ब्रत करते हैं। ऐसा करने वालों की मदद करते हैं।
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# नील षष्ठी पूजा के प्रारंभ होने की ये है कहानी
काफी समय पहले की बात है। एक बहुत ही धर्मपरायण ब्राह्मण और ब्राह्मणी थे। उनके सभी बच्चे एक-एक करके मरते चले गए। जिससे व्याकुल होकर वे अपना घर-बार छोड़कर काशी में बस गए। एक दिन की बात है। जब काशी में वे गंगा स्नान करके घाट पर बैठे थे, तभी अचानक एक बुढ़िया उनके पास आई। उससे ब्राह्मण ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो माँ?’ ब्राह्मणी अपने बच्चों के अकाल नुकसान के बारे में बात करती है। उन्हें इस बात का शोक था कि इतनी पूजा करने के बाद भी उनका सब कुछ विफल हो गया।
इस पर बुढ़िया जानना चाहती थी कि क्या ब्राह्मण ने कभी नील षष्ठी/नीली पूजा की थी। जवाबस्वरूप ब्राह्मण कहता है नहीं। तब उस बुढ़िया ने कहा, ‘चैत्र संक्रांति के पहले दिन तुम उपवास करोगी और महादेव की पूजा करोगी। शाम को भगवान शिव जी के घर में दीपक जलाएं और पानी पिएं।’ कहा जाता है कि बुढ़िया की बात मानने पर तदनुरूप पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास करने पर ब्राह्मण को फिर से संतान प्राप्त हुई। तब से ही यह नील षष्ठी व्रत प्रसिद्ध हो गया। देशज भाषा में कुछ लोग इसे नीली पूजा भी कहते हैं। समझा जाता है कि उस दिन की वह बुढ़िया कोई और नहीं, बल्कि वास्तव में स्वयं मां षष्ठी ही थीं। उन्हें लोग षष्ठी बूढ़ी भी कहते हैं।
# नील षष्ठी पूजा के ये हैं नियम, अनुपालन करने पर भोलेनाथ कर देंगे निहाल
जानकारों के मुताबिक, नील षष्ठी यानी नीला पूजा के दिन सम्पूर्ण दिवस उपवास करना होता है और शाम को भगवान भोलेनाथ/औघड़दानी शिव के मस्तक पर जल चढ़ाकर जलाभिषेक करना होता है। ततपश्चात भगवान शिव के मस्तक पर कुछ सफेद फूल और एक ऋतु फल अर्पित करना चाहिए। यदि सम्भव हो तो अपराजिता या अकंद के फूलों की माला भगवान शंकर को अर्पित कीजिए और अपने बच्चे के नाम से मोमबत्ती जलाकर उनसे कुशलक्षेम रखने की प्रार्थना करें। एक बात और, व्रत तोड़ने के बाद बिना फल, साबुनदाना आदि के शुद्ध आटे से बना भोजन किया जा सकता है। लोक मान्यता है कि नील षष्ठी व्रत के दिन श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर कुछ नियमों का पालन करने पर देवाधिदेव महादेव भगवान शिव अपने भक्त की मनोकामना हर दुर्लभ मनोकामनाएं शीघ्र ही पूरी करते हैं।
# ये हैं नील षष्ठी/नीली पूजा के कुछ खास टोटके
संतान की सलामती के लिए की जाने वाली इस नील षष्ठी पूजा यानी नीली पूजा के कुछ खास टोटके हैं, जिनका अनुपालन होना आवश्यक है। भले ही यह महत्वपूर्ण व्रत हमेशा की तरह ही किया जाता हो, लेकिन इस नील षष्ठी उर्फ नीली पूजा के कुछ विशेष नियम हैं, जिनका प्रतिपालन करने से ब्रतियों को विशेष फल मिलता है और उनका जीवन धन्य समझा जाता है। टोटके इस प्रकार हैं- पहला, गंगाजल में कच्चा दूध, कच्ची हल्दी का रस और सफेद चंदन मिलाकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। दूसरा, नील षष्ठी पूजा के दिन शहद, कच्चा दूध और गंगाजल मिलाकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। तीसरा, 28 बेलपत्र पर सफेद चंदन बिछाकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। लोकमान्यता है कि ऐसा करने से भक्तों को विशेष फल की प्राप्ति होती है।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार