देवी सती का एक ऐसा मंदिर जहां प्रतिमा की नहीं होती पूजा, जानें क्या है धार्मिक मान्यता
ज्वालामुखी : किसी जमाने में व्यापार वाणिज्य के लिये मशहूर ज्वालामुखी आज देश-दुनिया में हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल बन कर उभर आया है।
नवरात्र मेला के दौरान हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के ज्वालामुखी मंदिर की आभा में चार चांद लग जाते हैं। देश के विभिन्न भागों से आने वाले मां के भक्त आजकल ज्वालामुखी में अपने विश्वास श्रद्धा और भक्ति का प्रदर्शन करते हैं। ज्वालामुखी उत्तरी भारत का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल व बावन शक्तिपीठों में से एक है। इसके साथ कई पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथायें जुड़ी हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार अनन्त काल में जब हिमालय पर आसुरी शक्तियों का प्रभाव था व यह लोग देवताओं व भद्रजनों को सताते थे। उस समय भगवान विष्णु व दूसरे देवताओं ने असुरों को तबाह करने की योजना बनाई। उन्होंने वायु की मन्द गति से अग्नि प्रज्वलित की जो असुरों पर बरसने लगी।
वही धरातल से भी एक आग का गोला निकला व उससे निकले धुएँ के माध्यम से देवताओं का निकाला गया तो उसी समय एक कन्या का सृष्टि में अवतरण ह़ुआ। यह कन्या बाद में आदिशक्ति कहलाई , शक्ति का प्रथम स्वरूप। हेमकुण्ट ने उसे एक सफेद शेर सवारी के लिये दिया तो कुबेर ने राजमुकुट प्रदान किया, वही वरूण देव ने उसे वस्त्र व जल दिया, वहीं दूसरे देवताओं ने कमल, फूल, कोंच, चक्र व अन्य शक्तिशाली अस्त्र शास्त्रों से सुसज्जित कर दिया। यह बाद में दक्ष प्रजापति के घर में संतान के रूप में उत्पन्न हुई जिसे बाद में सती या पार्वती के रूप में पहचाना गया।
महाशिवपुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक समय सत्ती के पिता ने अपने यहां एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। सती, भगवान शिव की अर्धांगिनी थी व उनके पिता ने शिव की अवहेलना कर तमाम देवताओं को यज्ञ में बुलाया था। जब पार्वती को यह बात पता चली तो वह भी आयोजन में चल पड़ी। लेकिन यज्ञ स्थल पर पहुंच उसके धैर्य का का बांध उस समय टूट गया जब उसने देखा कि वहां उसके पति के लिये कोई स्थान आरक्षित नहीं था व उसका रस्मी स्वागत भी उसकी मां ने ही किया। आवेश में आ पार्वती चिल्लायी कि मैं उस शरीर को जीवित नहीं रखूंगी जिसको जन्म उसके पिता ने दिया है। वह यज्ञअग्नि में कूद पड़ी व उसका देहावसान हो गया। जब इसका पता भगवान शिव को चला तो सती के दग्ध शरीर को कंधे पर उठाकर हे सती कहते हुये ब्यामोहवश नाना देशों में घूमते हुये विलाप करने लगे। ऐसी स्थिती देख शिव का मोह भंग करने के लिये भगवान विष्णु सती के अंगो को अपने सुर्दशन चक्र से काटने लगे। इसी प्रकार मातृलोक में सती के विभिन्न स्थानों पर अंग -प्रत्यंग गिरे। सती के अंग 52 स्थानों पर, जहां सती के अंग गिरे वह शक्तिपीठ कहलाये।
इनमें ज्वालामुखी भी शक्तिपीठ है। यहां सती की महाजिव्हा गिरी थी। इसकी पुष्टि तंत्र चूड़ामणि से होती है। ज्वालामुख्यां महाजिहा देव उन्मत भैरवः। अर्थात ज्वालामुखी में सती की महाजिव्हा है और वहां पर भगवान शिव उन्मत भैरव रूप में स्थित हैं। दंत कथा के मुताबिक करीब 900 साल पहले दक्षिण में एक देवी ने एक ब्राहम्ण को कांगड़ा घाटी के जंगलों में प्रज्जवलित ज्योति को खोजने का आदेश दिया तो उसने पवित्र ज्योति खोजी व यहां मंदिर बना दिया वहीं पुरातन कहानी के मुताबिक यहां जल रही ज्योति दैत्य राज जालन्धर के मुख से निकली इसी वजह से इसे जालन्धर पीठ कहा गया।
ज्वालामुखी धूम्रा देवी धूमावती का स्थान है। व इसे 52 शक्तिपीठों में सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न स्थान माना गया है। इस पवित्र स्थल में देवी ज्योति रूप में विराजमान है। तंत्र विद्या में इसे पवित्र एंव प्रचण्ड स्थल माना गया है। शिवालिक पहाडिय़ों के आंचल में यह मंदिर स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह में नौ ज्योतियां जल रही हैं। इनके नाम महाकाली, अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका तथा अन्जना हैं ।
इनकी श्रद्धालु परिक्रमा करते हैं। विश्व में शायद यही ऐसा देवालय है जहां प्रतिमा की पूजा नहीं होती। व जल रही ज्योति ही शक्ति का साक्षात स्वरूप है। देश-दुनिया के तीर्थयात्रियों का यह पसंदीदा तीर्थ बन गया है। मंदिर नगरी के विकास के लिये कई अहम योजनाएं चल रही हैं। जिनमें प्रवासी भारतीय भी आर्थिक सहयोग दे रहे हैं। मंदिर न्यास संस्कृत पाठशाला एवं एक कालेज भी चला रहा है। मुख्य मंदिर के ऊपरी ओर नाथ सम्प्रदाय के प्रणेता गुरु गोरखनाथ का मंदिर है। जिसे गोरख डिब्बी कहते हैं। साथ ही तारा देवी, भैरव मंदिर, अम्बिकेश्वर व लाल शिवालय और अर्जुन नागा मंदिर हैं।