महात्मा गांधी पर इस वजह से चलाया गया था राजद्रोह का मुकदमा

0
महात्मा गांधी पर इस वजह से चलाया गया राजद्रोह का मुकदमा, जिन्ना ने लड़ा बाल गंगाधर तिलक का केस

 

  • जिन्ना ने लड़ा था बाल गंगाधर तिलक का केस

राजद्रोह कानून को लेकर उठी ये बहस कोई नई बहस नहीं है बल्कि वर्षों पुरानी है। क्योंकि सरकारों ने हमेशा से विरोध की आवाजों को दबाने के लिए इस कानून का सहारा लिया है। ये सवाल फिर से चर्चा में इसलिए हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के दुरुपयोग पर गहरी चिंता जताई है। राजद्रोह की धारा 124-ए की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसजी वोमबटकेरे ने  कहा कि सबको पता है कि इस औपनिवेशिक कानून के मामले में क्या होता है। इस कानून के दुरुपयोग की ओर इशारा करते हुए सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी ने कहा, हर कोई जानता है कि राजद्रोह मामले में क्या होता है।

 

 

 

राजद्रोह कानून को पिछले कुछ वर्षों में कई बार चुनौती दी गई है लेकिन इसके बावजूद भी ये कानून सभी चुनौतियों से बचने में कामयाब रहा है। 1962 के ऐतिहासिक केदार नाथ बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसके दुरुपयोग को रोकने की कोशिश करते हुए राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। अदालत ने उस समय कहा था कि जब तक हिंसा के लिए उकसाने या आह्वान नहीं किया जाता है, तब तक सरकार की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता है।

 

 

  • भारत में राजद्रोह कानून कब पेश किया गया था?

भारतीय दंड संहिता (IPS) की धारा 124A में निहित राजद्रोह कानून ब्रिटिश सरकार द्वारा 1870 में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ असंतोष से निपटने के लिए पेश किया गया था। आईपीसी का मूल मसौदा, जिसे 1860 में अधिनियमित किया गया था, में यह कानून शामिल नहीं था। देश के खिलाफ बोलना, लिखना या ऐसी कोई भी हरकत जो देश के प्रति नफरत का भाव रखती हो वो देशद्रोह कहलाएगी। अगर कोई संगठन देश विरोधी है और उससे अंजाने में भी कोई संबंध रखता है या  ऐसे लोगों का सहयोग करता है तो उस व्यक्ति पर भी देशद्रोह का मामला बन सकता है। अगर कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक तौर पर मौलिक या लिखित शब्दों, किसी तरह के संकेतों या अन्य किसी भी माध्यम से ऐसा कुछ करता है। जो भारत सरकार के खिलाफ हो, जिससे देश के सामने एकता, अखंडता और सुरक्षा का संकट पैदा हो तो उसे तो उसे उम्र कैद तक की सजा दी जा सकती है। लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस (एलओसी) द्वारा प्रकाशित एक ब्लॉग में कहा गया है कि 19वीं और 20वीं सदी में इस कानून का इस्तेमाल मुख्य रूप से प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के लेखन और भाषणों को दबाने के लिए किया गया था। हालिया वर्षों में विभिन्न लोगों पर आईपीसी के इस प्रावधान के तहत मामला दर्ज किया गया है, जिसमें कश्मीर पर विवादास्पद टिप्पणी को लेकर लेखक अरुंधति रॉय, हार्दिक पटेल (जो 2015 पाटीदार आरक्षण आंदोलन से संबंधित देशद्रोह के मामलों का सामना कर रहे हैं) और हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि, कन्हैया कुमार, उमर खालिद, पत्रकार विनोद दुआ और सिद्दीकी कप्पन शामिल हैं।

 

 

 

  • गांधी और तिलक के खिलाफ राजद्रोह कानून का इस्तेमाल

लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस के ब्लॉग के अनुसार कानून के आवेदन का पहला ज्ञात उदाहरण 1891 में अखबार के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस का मुकदमा था। कानून के आवेदन के अन्य प्रमुख उदाहरणों में तिलक और गांधी के परीक्षण शामिल हैं। इसके अलावा जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद और विनायक दामोदर सावरकर पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया था। 1922 में महात्मा गांधी को औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए बॉम्बे में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें छह साल जेल की सजा सुनाई गई थी लेकिन दो साल बाद स्वास्थ्य कारणों से रिहा कर दिया गया था।

 

 

 

गांधी से पहले, तिलक को राजद्रोह से संबंधित मामलों में तीन मुकदमों का सामना करना पड़ा और उन्हें दो सजा भी हुई थी। 1897 में उनके साप्ताहिक प्रकाशन केसरी में एक लेख लिखने के लिए तिलक पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन्हें 12 महीने के कारावास की सजा सुनाई गई। पुणे में फैले प्लेग और अकाल के संबंध में शासन की कटु आलोचना करते हुए तिलक के जो अग्रलेख उनके मुखपत्र ‘केसरी’ में प्रकाशित हुए थे उनसे तत्कालीन अंग्रेज सरकार बौखला उठी थी और उनके विरुद्ध राजद्रोह का यह मुकदमा उसी के पार्श्व में चलाया गया

 

 

  • जब जिन्ना ने लड़ा तिलक का केस

1908 में जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें बर्मा में छह साल की काला पानी की सज़ा हुई तो तिलक का मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने ही लड़ा था। जिन्ना में कोर्ट में यह तर्क दिया कि अगर भारतीय स्वशासन और स्वतन्त्रता की मांग करते हैं तो यह राजद्रोह बिल्कुल नहीं है,लेकिन उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी गई और उन्हें छह साल की सजा सुनाई गई। दूसरी बार तिलक पर मुकदमा उनके लेखन के कारण चलाया गया था। दरअसल, मुजफ्फरपुर में चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड ऑफ कलकत्ता के काफिले पर बम से हमला कर दिया था। हमले के बाद पकड़े जाने पर प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली थी और खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई।

 

 

 

 

फांसी से गुस्साए बाल गंगाधर तिलक ने अपने अखबार केसरी में न सिर्फ क्रांतिकारियों का बचाव किया बल्कि देश में तुरंत पूर्ण स्वराज्य की मांग कर डाली। 22 जुलाई 1908 को विद्रोह के आरोप में तिलक को छह साल की सजा सुनाई थी। इसके अलावा तिलक द्वारा केसरी में लिखे गए लेख को भी कानूनी तौर पर गलत बताया था। फैसले में कहा गया था कि तिलक ने अपने लेख के जरिए हिंसा व विद्रोह को भड़काया है।

New Project (4)
आकाश भगत

About Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *