अक्षय तृतीया : तप, शक्ति एवं मंगल का पर्व, पढ़े पूरी कथा

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अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में बल्कि जैन परम्परा में विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। यह त्यौहार अध्यात्म, आरोग्य, मंगल एवं उपवास का विलक्षण संगम है। इस त्यौहार के साथ-साथ एक अबूझा मांगलिक एवं शुभ दिन भी है, जब बिना किसी मुहूर्त के विवाह एवं मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं।
विभिन्न सांस्कृतिक एवं मांगलिक ढांचों में ढले अक्षय तृतीया पर्व में हिन्दू-जैन धर्म, संस्कृति एवं परम्पराओं का अनूठा संगम है। रास्ते चाहे कितने ही भिन्न हों पर इस पर्व के प्रति सभी जाति, वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय और धर्मों का आदर-भाव अभिन्नता में एकता का प्रिय संदेश दे रहा है। युद्ध, हिंसा एवं महामारी के समय में संयम एवं तप की अक्षय परम्परा को जन-जन की जीवनशैली बनाने की जरूरत है। अक्षय तृतीया का पावन पवित्र त्यौहार निश्चित रूप से धर्माराधना, त्याग, तपस्या आदि से पोषित ऐसे अक्षय बीजों को बोने का दिन है जिनसे समयान्तर पर प्राप्त होने वाली फसल न सिर्फ सामाजिक उत्साह को शतगुणित करने वाली होगी वरन अध्यात्म की ऐसी अविरल धारा को गतिमान करने वाली भी होगी जिससे सम्पूर्ण मानवता सिर्फ कुछ वर्षों तक नहीं पीढ़ियों तक स्नात होती रहेगी।
अक्षय तृतीया के पवित्र दिन पर हम सब संकल्पित बनें कि जो कुछ प्राप्त है उसे अक्षुण्ण रखते हुए इस अक्षय भंडार को शतगुणित करते रहें। यह त्यौहार हमारे लिए एक सीख बने, प्रेरणा बने और हम अपने आपको सर्वोतमुखी समृद्धि की दिशा में निरंतर गतिमान कर सकें। अच्छे संस्कारों का ग्रहण और गहरापन हमारी संस्कृति बने, तभी अक्षय तृतीया पर्व की सार्थकता होगी।
अक्षय तृतीया इस वर्ष 10 मई, 2024 को है। यह दिन किसानों एवं कुंभकारों के लिए विशेष महत्व का दिन हैं। शिल्पकारों के लिए भी यह बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है। प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानों को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है। लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। हिन्दू धर्म में उपवास व्रत के रूप में प्रतिष्ठित है। विशिष्ट तिथियों, पर्वों, त्यौहारों पर विविध उद्देश्यों एवं कामनाओं की पूर्ति के लिये उपवास किये जाते हैं।
इस्लाम में नमाज, जकात, हज आदि बुनियादी धार्मिक कृत्यों में एक है रोजा। रोजा का अर्थ बताया गया- रुक जाना। कुरआने करीम-रोजा सब मुसलमानों का फर्ज है। रोजा उपवास का एक रूप है, जो चांद एवं तारों की साक्षी से खोला जाता है। इसी प्रकार साइबेरिया, अमरीकन- इंडियन कबीलों एवं युनाइटेड स्टेट्स के उत्तरी-पश्चिमी इलाकों में भी किसी-न-किसी रूप में उपवास किये जाते हैं- ऐसा शोधार्थी मानते हैं। उनका विश्वास है, उपवास के समय ईश्वर सपनों के माध्यम से दैवीय शिक्षा देते हैं। पेरु में पादरी के समक्ष पापों को स्वीकारने के लिये उपवास जरूरी माना जाता है। जूडेइज्म में प्रायश्चित के दिन एवं अन्य अवसरों पर उपवास का विधान है। इन सब तथ्यों का निष्कर्ष है कि उपवास सभी धर्मों और सभी देशों में धार्मिक आस्था के साथ हुआ व्यापक उपक्रम है।
कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या एवं उपवास से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इसदिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं। यह संसार से मोक्ष की मुस्कान, शरीर को तपाने और आत्मस्थ करने का अवसर है।
अक्षय तृतीया तप, त्याग और संयम का प्रतीक पर्व है। इसका सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव के युग और उनके कठोर तप से जुड़ा होने से वर्षीतप की परम्परा चली। यह ऋषभ की दीर्घ तपस्या के समापन का दिन है। अपने आदिदेव की स्मृति में जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में असंख्य श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप करते हैं। जिनकी तपस्या का पूर्णाहुति एवं नये वर्षीतप के संकल्प के लिये इस दिन देशभर में आचार्यों और मुनियों के सान्निध्य में अनेक आयोजन होते हैं। इसका मुख्य आयोजन हस्तिनापुर (जिला मेरठ- उत्तर प्रदेश) में श्री शांतिनाथ जैन मन्दिर में एवं प्राचीन नसियांजी, जो भगवान ऋषभ के पारणे का मूल स्थल पर आयोजित होता है, वहां पर देशभर से हजारों तपस्वी एकत्र होते हैं और अपनी तपस्या का पारणा करते हैं। सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का नाम है ऋषभ। वे सम्राट से संन्यासी बने, उनके प्रति जनता में गहरा आदर भाव था। यही कारण रहा कि उनके प्रजाजनों को इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान ऋषभदेव को भिक्षा में भोजन की भी आवश्यकता होगी।

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भगवान ऋषभ प्रतिदिन शुद्ध आहार की गवेषणा एवं तलाश करते हुए घर-घर में घूमते, लेकिन अज्ञानता के सघन आवरण के कारण कोई भी उन्हें भोजन उपहृत नहीं करता। लोग उन्हें आदर के साथ हाथी, घोड़े, रथ, रत्नाभूषण, रत्न जड़ित पादुकाएं ग्रहण करने की प्रार्थना करते। उनका मत था कि वे अपने सृजनहार को अपने पास की सबसे बड़ी एवं कीमती वस्तु उपहृत करें। इस तरह बिना आहार के भगवान ऋषभ की तपस्या के बारह महीने पूरे हो गए। इस क्रम में आप पादविहार करते हुए हस्तिनापुर पधारते हैं। आपका प्रपौत्र श्रेयांस कुमार राजमहल के गवाक्ष में बैठा सड़क के दृश्य को देख रहा है। अचानक उसकी नजरें सड़क पर भिक्षा की गवेषणा में नंगे पैर घूमते अपने संसारपक्षीय परदादा भगवान ऋषभदेव पर पड़ती है। भगवान ने प्रपौत्र श्रेयांस के हाथों इक्षुरस का सुपात्र दान लेकर एक नई परम्परा की शुरूआत की। इन अप्रत्याशित क्षणों के साक्षी बनकर देवलोक से समागत देवतागण भी अहोदानं-अहोदानं की ध्वनि प्रकट करते हुए पांच प्रकार के द्रव्यों की वर्षा की। एक दृष्टि से धर्म क्षेत्र में नयी सोच के दर्शन कराने वाला दिन बन गया। यही सन्दर्भ तपस्या और साधना का शुभ मुहूर्त बन गया। प्रतीकात्मक रूप में इसे वर्ष भर तक एकांतर तप (एक दिन छोड़कर पुनः उपवास) की साधना के साथ मनाये जाने की परम्परा ने विगत कुछ वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। तपस्या को जैन धर्म साधना में अत्यन्त महत्पूर्ण स्थान दिया जाता है। मोक्ष के चार मार्गों में तपस्या का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। तपस्या आत्मशोधन की महान प्रक्रिया है और इससे जन्म जन्मांतरों के कर्म आवरण समाप्त हो जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि इसकी साधना से जीवन विकास की सीख हमारे चरित्र की साख बने। हममें अहं नहीं, निर्दोष शिशुभाव जागे। यह आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा बने।
सनातन धर्म में इसी दिन शादियों के भी अबूझ एवं स्वयंसिद्ध मुहूर्त रहता है और थोक में शादियां होती है। अक्षय तृतीया को आखा तीज भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किए जाते हैं वे पुरी तरह सफल होते हैं एवं शुभ कार्यों को अक्षय फल मिलता है। भविष्य पुराण एवं स्कंद पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया था। जो दक्षिण भारत में बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाई जाती है। साथ ही यह भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। साथ ही अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदना अत्यंत शुभ माना जाता है तथा गृह प्रवेश, पदभार ग्रहण, वाहन खरीदना, भूमि पूजन आदि शुभ कार्य करना अत्यंत लाभदायक एवं फलदायी होते हैं। इतना ही नहीं अक्षय तृतीया के दिन ही वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन एवं प्रमुख तीर्थ बद्रीनाथ के पट (द्वार) भी अक्षय तृतीया को ही खुलते हैं।
– ललित गर्ग
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
AngeloGok

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