झारखण्ड : आख़िर क्यों बार-बार पड़ जाती है मुख्यमंत्री की कुर्सी ख़तरे में
बात साल 2005 की है। रात के ढाई बज रहे थे और रांची की सुनसान ‘मेन रोड’ पर अचानक से हलचल मच गई। कुछ तेज़ रफ़्तार गाड़ियां और उन गाड़ियों का पीछा करती पुलिस की सायरन बजाती वैन। रांची मेन रोड पर जितने भी होटल थे, सभी के एक-एक कमरे की तलाशी ली जा रही थी।
ये बात उस दिन की है जिस दिन विधानसभा चुनावों के नतीजे आए थे। सबसे ज़्यादा सीटें लाने वाली भाजपा को बहुमत नहीं मिला था।
विपक्ष में कांग्रेस और कुछ छोटे दलों का गठबंधन था, जिसे बीजेपी से कम सीटें मिलीं थीं। सरकार बनाने पर पेंच फंस गया क्योंकि कोई भी पार्टी बहुमत हासिल नहीं कर सकी थी। अब सत्ता की चाभी कुछ छोटे दलों और निर्दलीय जीतकर आए विधायकों के हाथ में थी।
छोटे दल या निर्दलीय विधायक अपनी जीत का सर्टिफ़िकेट लेकर जैसे-जैसे रांची पहुंच रहे थे, वैसे-वैसे पुलिस उन्हें होटल ले जा रही थी। रांची के पुलिस अधीक्षक एक विधायक को उनका कॉलर पकड़ कर घसीट रहे थे।
लोकतंत्र का ये तमाशा पूरी रात चलता रहा उस समय बीबीसी के संवाददाता रहे श्याम सुन्दर और मैं रातभर इस हलचल को रिकॉर्ड कर रहे थे। इस दौरान एक बार एसपी के साथ हमारी नोंक-झोंक भी हो गई क्योंकि पुलिस अधीक्षक नहीं चाह रहे थे कि ये सबकुछ रिकॉर्ड हो।
- नए राज्यों का गठन
साल 2000 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी तो तीन नए राज्यों का गठन हुआ था। झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़। बिहार से अलग होने के बाद झारखंड के हिस्से में कुल 81 विधानसभा की सीटें आईं।
झारखण्ड के पहले मुख्यमंत्री रह चुके और वर्तमान में बीजेपी के विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी हालांकि अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए थे। दरअसल, उनके गठबंधन में ही शामिल दलों के विधायकों ने बग़ावत कर दी थी और उनकी जगह अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था।
- ख़ास बातें
झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। मगर एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।
एक बार तो शिबू सोरेन मात्र दस दिनों के लिए ही मुख्यमंत्री बने थे
मुख्यमंत्री रहते विधानसभा का चुनाव हारने का भी रिकार्ड उन्हीं का है जब वो रांची के पास तमाड़ सीट से लड़े थे
21 साल में झारखंड 11 सरकारें और 6 मुख्यमंत्री देख चुका है
इसी अस्थिरता के कारण झारखंड में राष्ट्रपति शासन भी रहा।
साल 2014 में पहली बार ऐसा हुआ कि भारतीय जनता पार्टी के रघुबर दास बतौर मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा कर पाए। मगर उन्होंने भी निर्दलीय विधायकों या फिर छोटे दलों से गठबंधन किया था और उन्हें तो पार्टी के अंदर से ही बगावत झेलनी पड़ी थी।
झारखण्ड एक ऐसा राज्य है जहां दो-दो उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं क्योंकि सत्तारूढ़ दल के पास पूर्ण बहुमत नहीं था। छोटे दलों और निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर सरकार बनी थी। उस समय कुछ विधायक बंगाल जाने की कोशिश कर रहे थे, जिन्हें पुलिस ने जमशेदपुर के पास पकड़ लिया था।
झारखण्ड में ही एक नया प्रयोग भी देखा गया, जब एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को कांग्रेस ने समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन उनका कार्यकाल भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा रहा।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हरिनारायण सिंह ने बीबीसी से कहा कि झारखंड में विधानसभा की सीटें मात्र 81 हैं इसलिए बहुमत का गुणा-भाग हमेशा बहुत करीबी रहता है। राजनीतिक दलों ने कई बार चुनाव आयोग को प्रतिवेदन दिया कि झारखण्ड में सीटों का परिसीमन हो और उनकी संख्या बढ़ाई जाए।
81 सीटों में बहुमत के लिए 41 का आंकड़ा है जिसे सूबे के उलझे समीकरण के कारण हासिल करना किसी भी दल के लिए कठिन रहता है।
पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बीबीसी से कहते हैं, “झारखण्ड की सीमा चार राज्यों से लगी हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल।”
वो कहते हैं, “हर क्षेत्र की भाषा अलग है। कहीं भोजपुरी बोली जाती है, कहीं मुंडारी तो कहीं खोरठा और बंग्ला या उड़िया। इन इलाकों के राजनीतिक मुद्दों पर भी अलग-अलग राजनीतिक दलों का प्रभाव है। मसलन जो इलाके बिहार से लगे हैं वहां राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यूनाइटेड) का प्रभाव है।”
इसके अलावा कई इलाकों में ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन पार्टी, झारखण्ड पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, भाकपा-माले, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जैसे दलों का प्रभाव है। इसलिए राष्ट्रीय दलों की सबसे बड़ी दुविधा रहती है अपने बल पर चुनाव जीतना।
- भ्रष्टाचार के आरोप
झारखण्ड में कोई सरकार ऐसी नहीं बनी जिसके दामन को साफ़ कहा जा सके। जिस समय मधु कोड़ा मुख्यमंत्री थे, उनके और उनके मंत्रियों के ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापे पड़े। कोड़ा खुद तो जेल गए ही साथ ही उनके कई मंत्री और नौकरशाहों को भी जेल जाना पड़ा था।
विश्लेषक कहते हैं कि जब केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार को सदन में अपना बहुमत सिद्ध करना था उस समय झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के तीन सांसदों पर ‘समर्थन देने के बदले में पैसे लेने’ का आरोप लगा था।
इनमें झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से संस्थापक शिबू सोरेन और उन्हीं की पार्टी के ही शैलेन्द्र महतो और सूरज मंडल पर भी आरोप लगा और वो जेल भी गए।
सीबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, इन सांसदों ने ‘रिश्वत की रक़म को सीधे बैंक में ही जमा करवा दिया था।’
अब हेमंत सोरेन पर आरोप हैं कि ख़ुद मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने खनन का पट्टा अपने नाम से जारी करा लिया। इसीलिए उनकी विधानसभा की सदस्यता भी जा सकती है। चुनाव आयोग ने इस पर संज्ञान लेते हुए राज्यपाल को चिठ्ठी भी लिखी है।
- क्या हेमंत सोरेन की सरकार गिर जाएगी
इस पर बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि आंकड़ों के हिसाब से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के पास 30 विधायक हैं जबकि कांग्रेस के पास 18। इनके पास पूर्ण-बहुमत है। बीजेपी को इन विधानसभा चुनावों में सबसे कम 18 सीटें मिली हैं जबकि उसके गठबंधन के साथी आजसू पार्टी को 2 सीटें।
उनका कहना है, “सब निर्दलीय विधायकों को मिला भी लिया जाए तो बहुमत नहीं आ रहा है। इसलिए हम कुछ नहीं कर रहे हैं। हम इंतज़ार कर रहे हैं कि राज्यपाल क्या कहते हैं। इसके बाद ही बीजेपी की तरफ से हम कोई स्टैंड लेंगे।”
झारखण्ड की राजनीति को क़रीब से देखने वाले गौतम बोस को लगता है कि हेमंत सोरेन के सामने एक ही विकल्प बचा है। वो अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना सकते हैं और अगले ढाई साल का कार्यकाल सरकार पूरा कर लेगी।
हरि नारायण सिंह का मानना है कि ये तय दिख रहा है कि हेमंत सोरेन को गद्दी छोड़नी पड़ सकती है और इसी को देखते हुए विधानसभा का विशेष सत्र भी 5 सितम्बर को बुलाया गया है।
हरि नारायण सिंह संभावना जताते हैं कि संभव है कि किसी बड़ी घोषणा के साथ हेमंत सोरेन अपना पद त्याग दें और अपनी पत्नी को कुर्सी पर बिठाकर सत्ता चलाएंगे।
लेकिन गौतम बोस कहते हैं, “इसी राजनीतिक अस्थिरता के कारण जंगल, नदियों और खनिज सम्पदा से भरपूर ये राज्य कभी तरक्क़ी नहीं कर पाया। जबकि छत्तीसगढ़ भी इसी राज्य के साथ अस्तित्व में आया और उस राज्य में तेज़ी से विकास हुआ। ”
गौतम बोस कहते हैं, “लेकिन अस्थिरता की भेंट चढ़ा झारखण्ड कुछ नहीं कर पाया। यहां की सरकारें कुछ नहीं कर पाईं। मुख्यमंत्री जिस घर में रहते हैं उसमे अविभाजित बिहार के दौर में रांची के संभागीय कमिश्नर रहा करते थे। रांची के हैवी इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन की ज़मीन और भवनों से सरकार चलती रही। राज्य की राजधानी रांची ‘चोक’ यानी पूरी तरह से जाम हो चुकी है।”
उनके अनुसार, “कई बार हुआ कि नई राजधानी बनाई जाएगी। इलाके का चयन भी हुआ। मगर मामला जस का तस रह गया। झारखंड की नयी विधानसभा बनी तो ज़रूर है, मगर एचईसी की ज़मीन पर ही। अब भी मंत्री और अधिकारियों को रहने के लिए एचईसी के ही बंगले दिए गए हैं।”
गौतम बोस कहते हैं कि झारखण्ड एक ‘असफल राज्य’ के रूप में ही काम करता रहा है।
: सलमान रावी, बीबीसी संवाददाता