आजादी के बाद एक देश एक चुनाव की थी अवधारणा, फिर आखिर क्यों अलग-अलग होने लगे लोकसभा और विधानसभा के चुनाव

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भारत में चुनाव को ‘लोकतंत्र का उत्सव’ कहा जाता है, तो क्या पांच साल में एक बार ही जनता को उत्सव मनाने का मौका मिले या देश में हर वक्त कहीं न कहीं उत्सव का माहौल बना रहे? आजादी के बाद देश में साथ चुनाव की परंपरा रही लेकिन मध्यावधी चुनावों की वजह से ये व्यवस्था टूट गई। बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है, लेकिन विगत में 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। ऐसे में आज आपको बताते हैं कि आजादी के बाद एक देश एक चुनाव अवधारणा आखिर क्यों बदल गई और देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव क्यों अलग-अलग होने लगे। 
भारत का पहला आम चुनाव
आजादी के बाद भारत का पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक चला। पहले आम चुनाव में लोकसभा की 497 और राज्यों की 3283 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुआ था। जिसमें देश के 17 करोड़ 32 लाख 12 हजार 343 मतदाताओं का रजिस्ट्रेशन हुआ था। इनमें 10 करोड़ 59 लाख लोगों ने करीब 85 फीसदी निरक्षर थे और अपने जनप्रतिनिधियों का चयन कर समस्त विश्व को आश्चर्य में डाल दिया था। इस चुनाव में आजादी की लड़ाई का दूसरा नाम बनी कांग्रेस ने 364 सीटें जीत कर प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। देश के पहले आम चुनाव के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। उनके अलावा 2 ऐसे नेता भी चुनाव जीते जो आगे चलकर भारत के प्रधानमंत्री बने, ये थे- गुलजारी लाल नंदा और लाल बहादुर शास्त्री। 

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1957 में एक भी महिला उम्मीदावर नहीं
1957 के दूसरे आम चुनाव में कांग्रेस अपनी सफलता की कहानी को दोहराने में कामयाब हुई। कांग्रेस  पार्टी के 490 उम्मीदवारों में से 371 ने जीत दर्ज की। पार्टी ने कुल 57579589 मतों की जीत के साथ 47.78 प्रतिशत बहुमत सुरक्षित रखा। कांग्रेस के सदस्य फिरोज गांधी का भी उदय इसी चुनाव में हुआ। 1957 के चुनाव की दिलचस्प कहानी ये थी कि उसमें एक भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं थी। इस लोकसभा ने 31 मार्च 1962 तक अपना कार्यकाल पूरा किया। 
तीसरा आम चुनाव
तीसरी लोकसभा अप्रैल 1962 में बनाई गई। मई 1964 में नेहरू जी का निधन हो गया। नेहरू की मौत के बाद 2 हफ्ते के लिए गुलजारी लाल नंदा ने उनकी जगह ली। लाल बहादुर शास्त्री के नए प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने तक उन्होंने कार्यवाहन पीएम के रूप में काम किया। लेकिन शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस एक बार फिर नेतृत्व विहीन हो गई। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने से पहले एक बार फिर नंदा को एक महीने से कम समय के लिए कार्यवाहन प्रधानमंत्री बनाया गया। इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 को पहली बार प्रधानमंत्री बनीं। 
कांग्रेस का बंटवारा और फिर जाकर टूटी एक साथ चुनाव की अवधारणा
1967 के चुनाव में कांग्रेस को 283 सीटें प्राप्त हुई। 1967 तक सबसे पुरानी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में भी कभी 60 प्रतिशत से कम सीटें नहीं जीती थीं। कांग्रेस ने 12 नवंबर 1969 को अनुशासनहीनता की वजह से निष्कासित कर दिया। कांग्रेस दो भागों में वभाजित हो गई। कांग्रेस ओ का नेतृत्व मोरारजी देसाई ने और कांग्रेस आई का नेतृत्व इंदिरा गांधी ने किया। 1970 तक इंदिरा ने वाम दलों के समर्थन से सरकार चलाई। लेकिन जिसके बाद मध्यवधि चुनाव का ऐलान हो गया। लेकिन इसके बाद 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। 
 

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