सभी मनोकामनाएं पूरी करने आ गया है सकट चौथ व्रत, जानिये इसका महत्व, पूजन विधि और व्रत कथा

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सकट चौथ का पर्व माघ माह की कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाता है। इस दिन संकट हरण गणपति गणेशजी का पूजन होता है। यह व्रत संकटों तथा दुखों को दूर करने वाला है। मान्यता है कि इस दिन व्रत करने से श्रद्धालुओं की सभी इच्छाएं व मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। वक्रतुण्डी चतुर्थी, माही चौथ अथवा तिलकुटा चौथ इसी पर्व के अन्य नाम हैं। इस दिन संकट हरण गणेशजी तथा चंद्रमा का पूजन किया जाता है। सकट चौथ के दिन सभी महिलाएं सुख सौभाग्य और सर्वत्र कल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर विशेष रूप से इस दिन व्रत करती हैं। पद्म पुराण के अनुसार यह व्रत स्वयं भगवान गणेश ने मां पार्वती को बताया था। इस व्रत की विशेषता है कि घर का कोई भी सदस्य इस व्रत को कर सकता है।

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सकट चौथ व्रत पूजन विधि
इस दिन व्रत रहने के बाद सायंकाल चंद्र दर्शन होने पर दूध का अर्ध्य देकर चंद्रमा की विधिवत पूजा की जाती है। इस दिन गौरी गणेश की स्थापना कर उनका पूजन किया जाता है तथा इस मूर्ति को वर्ष भर घर में रखा जाता है। सकट चौथ के दिन नैवेद्य सामग्री, तिल, ईख, गंजी, भांटा, अमरूद, गुड़, घी से चंद्रमा व गणेश का भोग लगाया जाता है। यह नैवेद्य रात्रिभर डलिया इत्यादि से ढक कर यथावत रख दिया जाता है जिसे पहार कहते हैं। पुत्रवती माताएं पुत्र तथा पति के सुख समृद्धि के लिए व्रत रहती हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस ढके हुए पहार को पुत्र ही खोलता है।
उत्तर भारत में कई जगह इस दिन स्त्रियां निर्जल व्रत रखकर शाम को फलाहार लेती हैं और दूसरे दिन सुबह सकट माता पर चढ़ाए गए पकवानों को प्रसाद रूप में ग्रहण करती हैं। इस दिन तिल को भूनकर गुड़ के साथ कूट लिया जाता है और तिलकुट का पहाड़ बनाया जाता है। कहीं कहीं तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। उसकी पूजा करके घर का कोई बच्चा तिलकूट बकरे की गर्दन काटता है। फिर सबको उसका प्रसाद दिया जाता है। पूजा के बाद सब लोग कथा सुनते हैं।
सकट चौथ व्रत कथा
किसी नगर में एक कुम्हार रहता था। एक बार जब उसने बर्तन बनाकर आंवां लगाया तो आंवां नहीं पका। परेशान होकर वह राजा के पास गया और बोला कि महाराज न जाने क्या कारण है कि आंवां पक ही नहीं रहा है। राजा ने राजपंडित को बुलाकर कारण पूछा। राजपंडित ने कहा, ”हर बार आंवां लगाते समय एक बच्चे की बलि देने से आंवां पक जाएगा।” राजा का आदेश हो गया। बलि आरम्भ हुई। जिस परिवार की बारी होती, वह अपने बच्चों में से एक बच्चा बलि के लिए भेज देता। इस तरह कुछ दिनों बाद एक बुढ़िया के लड़के की बारी आई। बुढ़िया के एक ही बेटा था तथा उसके जीवन का सहारा था, पर राजाज्ञा कुछ नहीं देखती। दुखी बुढ़िया सोचने लगी, ”मेरा एक ही बेटा है, वह भी सकट के दिन मुझ से जुदा हो जाएगा।” तभी उसको एक उपाय सूझा। उसने लड़के को सकट की सुपारी तथा दूब का बीड़ा देकर कहा, ”भगवान का नाम लेकर आंवां में बैठ जाना। सकट माता तेरी रक्षा करेंगी।”

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सकट के दिन बालक आंवां में बिठा दिया गया और बुढ़िया सकट माता के सामने बैठकर पूजा प्रार्थना करने लगी। पहले तो आंवां पकने में कई दिन लग जाते थे, पर इस बार सकट माता की कृपा से एक ही रात में आंवां पक गया। सवेरे कुम्हार ने देखा तो हैरान रह गया। आंवां पक गया था और बुढ़िया का बेटा जीवित व सुरक्षित था। सकट माता की कृपा से नगर के अन्य बालक भी जी उठे। यह देख नगरवासियों ने माता सकट की महिमा स्वीकार कर ली। तब से आज तक सकट माता की पूजा और व्रत का विधान चला आ रहा है।
सकट चौथ व्रत से जुड़ी एक और कथा
एक बार विपदापन्न देवता लोग भगवान शंकर के पास गये। उस समय भगवान शिव के सम्मुख स्वामी कार्तिकेय तथा गणेश विराजमान थे। शिव जी ने दोनों बालकों से पूछा− तुम में से कौन ऐसा वीर है, जो देवताओं का कष्ट निवारण करे?” तब कार्तिकेय ने अपने को देवताओं का सेनापति प्रमाणित करते हुए देव रक्षा योग्य तथा सर्वोच्च देव पद मिलने का अधिकारी सिद्ध किया। यह बात सुनकर शिवजी ने गणेश की इच्छा जाननी चाही। तब गणेश जी ने विनम्र भाव से कहा कि पिता आपकी आज्ञा हो तो मैं बिना सेनापति बने ही सब संकट दूर कर सकता हूं। बड़ा देवता बनाएं या ना बनाएं इसका मुझे लोभ लिप्सा नहीं।
यह सुनकर विहंसत हुए शिव ने दोनों लड़कों को पृथ्वी की परिक्रमा करने को कहा तथा यह शर्त रखी कि जो सबसे पहले पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करके आ जाएगा, वही वीर तथा सर्वश्रेष्ठ देवता घोषित किया जायेगा। यह सुनते ही स्वामी कार्तिकेय बड़े गर्व से अपने वाहन मोर पर चढ़कर पृथ्वी परिक्रमा करने चल दिये। गणेश जी ने समझा कि चूहे के बल पर तो पूरे पृथ्वी का चक्कर लगाना अत्यन्त कठिन है इसीलिए उन्होंने एक युक्ति सोची।
वे सात बार अपने माता पिता की परिक्रमा करके बैठ गये। रास्ते में कार्तिकेय को पूरे पृथ्वी मण्डल में उनके आगे चूहे का पद चिन्ह दिखाई दिया। परिक्रमा करके लौटने पर निर्णय की बारी आई। कार्तिकेय जी गणेश पर कीचड़ उछालने लगे तथा अपनी शाबासी से पूरे भूमंडल का एकमात्र पर्यटक बताया। इस पर गणेश जी ने शिव से कहा कि माता-पिता में ही समस्त तीर्थ निहित हैं इसीलिए मैंने आपकी सात बार परिक्रमाएं की हैं।
गणेश जी की इस बात को सुनकर समस्त देवता तथा कार्तिकेय ने सिर झुका दिया। तब शंकर जी ने उन्मुक्त कंठ से गणेश की प्रशंसा की तथा आशीर्वाद दिया कि त्रिलोक में सर्वप्रथम तुम्हारी पूजा होगी। तब गणेश जी ने पिता की आज्ञानुसार जाकर देवताओं का संकट दूर किया। यह शुभ समाचार जानकर भगवान शंकर ने अपने चंद्रमा को यह बताया कि चौथ के दिन यही तुम्हारे मस्तक का ताज बनकर पूरे विश्व को शीतलता प्रदान करेगा जो स्त्री पुरुष इस तिथि पर तुम्हारा पूजन तथा चंद्र अर्ध्य दान देगा उसका त्रिविध ताप (दैहिक, दैविक, भौतिक) दूर होगा और ऐश्वर्य, पुत्र, सौभाग्य को प्राप्त करेगा।
-शुभा दुबे

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