भोपाल गैस त्रासदी: 37 सालों बाद भी उस भयावह रात का दंश झेल रहे हैं बच्चे

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भोपाल। भोपाल में रह रहे सैकड़ों बच्चों का जन्म दो-तीन दिसंबर 1984 की उस भयानक मध्यरात्रि को भले ही नहीं हुआ था लेकिन वे हर दिन और हर मिनट गैस त्रासदी का दंश झेल रहे हैं और वे जिंदगी भर के लिए नेत्रहीनता और मस्तिष्क पक्षाघात जैसी बीमारियों का शिकार बन गए हैं।
उस काली रात का साया 37 वर्षों के बाद भी उतरा नहीं है जब जानलेवा 40 टन मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से रिसाव हो गया था जिसकी चपेट में हजारों लोग आए थे। दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक आपदाओं में से एक भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों की आधिकारिक संख्या 2,259 है लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि यह संख्या 20,000 से अधिक हो सकती है।
इस घटना में बचे लोगों और आने वाली पीढ़ियों पर इसका विनाशकारी असर पड़ा।

इसके बाद जन्म लेने वाले बच्चे डाउन सिंड्रोम, मांसपेशियों का विकास न होने संबंधी बीमारी और ध्यान लगाने में कठिनाई संबंधी बीमारी से पीड़ित पाए गए।
अल्फेज 11 साल का, उमर 13 साल का, ईशा 19 साल की और मोहसिन 25 साल का है और यह उन कई बच्चों में शामिल हैं जो बिस्तर पर और अपने घरों के भीतर जिंदगी जीने पर मजबूर है, लाचार हैं और अपनी दैनिक जरूरतों के लिए भी दूसरे लोगों पर पूरी तरह निर्भर हैं।
अजान केवल चार साल का है और वह मस्तिष्क पक्षाघात का शिकार है और यह आनुवंशिक बीमारी उसे 37 साल पहले गैस त्रासदी की चपेट में आए अपने नाना-नानी से मिली। उसकी नानी ने कहा, ‘‘जब गैस त्रासदी हुई तो मैं आठ माह की गर्भवती थी। मेरी बेटी का जन्म नाक संबंधी बीमारियों के साथ हुआ लेकिन वह इतनी गंभीर नहीं थी।’’
अजान की दिक्कतें पिछले छह महीने में बढ़ गयी है क्योंकि लॉकडाउन के कारण उसे नियमित थेरेपी नहीं मिली है।
ध्यान लगाने में कठिनाई और बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में काम करने संबंधी बीमारी एडीएचडी से पीड़ित 11 वर्षीय अल्फेज अकेलेपन की जिंदगी जी रहा है और बहुत कम लोग उसे समझ पाते हैं। उसकी मां तरन्नुम ने बताया कि जब वह एक साल का भी नहीं था तो उसे डॉक्टर के पास ले जाया गया जहां उनसे पूछा गया कि क्या परिवार में कोई गैस त्रासदी की चपेट में आया था।

फिर यह पता चला कि उसके पिता साजिद उस जानलेवा गैस की चपेट में आए थे और उस समय उनकी उम्र महज डेढ़ साल थी। डॉक्टर ने तरन्नुम को बताया था कि अल्फेज की चिकित्सा स्थिति जन्मजात है।
तरन्नुम ने कहा, ‘‘लॉकडाउन के कारण अल्फेज की नियमित थेरेपी में बाधा पैदा हुई जिसमें चिंगारी रिहैब सेंटर की ओर से दी जाने वाली विशेष शिक्षा शामिल है। उसका व्यवहार बदल गया था। नियमित थेरेपी से अल्फेज ने थोड़ा बहुत बोलना शुरू किया था लेकिन यह रुक गया और अब वह यह भी नहीं बता पाता कि उसे शौचालय जाना है।
डाउन सिंड्रोन के साथ जन्म लेने वाले उमर अहमद की दिक्कतें भी बढ़ गयी है। थेरेपी सत्र न होने के कारण अब जब कोई भी 13 वर्षीय उमर के करीब आता है तो वह उसे मारना शुरू कर देता है। उमर के पिता दिसंबर 1984 को महज चार साल के थे जब वह जहरीली गैस की चपेट में आए।
भोपाल के गली-कूचों में ऐसे सैकड़ों बच्चे हैं जो इस त्रासदी का दंश झेल रहे हैं और उस भयावह हादसे ने उनसे उनके स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार भी छीन लिया है। उस काली रात का साया कब खत्म होगा? विशेषज्ञ इसका जवाब अब भी ढूंढ रहे हैं।

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