आस्था, भक्ति और सामाजिक समरसता का भव्य उत्सव है भगवान जगन्नाथ रथयात्रा
भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत में भगवान जगन्नाथ की यात्रा एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हर वर्ष ओडिशा के पुरी नगर में आयोजित होने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह आस्था, भक्ति और सामाजिक समरसता का भव्य उत्सव भी है। यह यात्रा भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को विशाल रथों में श्रीमंदिर से बाहर लाकर जनसामान्य के दर्शन हेतु निकाली जाती है।
भगवान जगन्नाथ को भगवान विष्णु या श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है। रथ यात्रा का आयोजन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को होता है, जिसे ‘रथ द्वितीया’ कहा जाता है। यह परंपरा सदियों पुरानी है और कहा जाता है कि यह यात्रा 12वीं सदी से भी पहले शुरू हो चुकी थी।
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पुरी के श्रीजगन्नाथ मंदिर की रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध है और इसे देखने के लिए देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं। इस उत्सव की भव्यता और अध्यात्मिक ऊर्जा को देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध हो जाता है।
रथ यात्रा की विशेषताएं
तीन रथ: भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के लिए अलग-अलग विशाल रथ बनाए जाते हैं। ये रथ हर साल नए लकड़ी से तैयार किए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम ‘नंदिघोष’, बलभद्र के रथ का नाम ‘तालध्वज’ और सुभद्रा के रथ का नाम ‘दर्पदलन’ होता है, इसे पद्म ध्वज नाम से भी पुकारा जाता है।
गुंडिचा मंदिर यात्रा: रथ यात्रा के दौरान भगवान अपने भाई-बहन के साथ श्रीमंदिर से करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर जाते हैं। वहां वे सात दिन तक विश्राम करते हैं और फिर ‘बहुड़ा यात्रा’ के माध्यम से वापस आते हैं।
छेरा पहरा: पुरी के गजपति महाराज स्वयं सोने की झाड़ू से रथ की सफाई करते हैं। इसे ‘छेरा पहरा’ कहा जाता है और यह राजा द्वारा भगवान के प्रति अपनी सेवा और समर्पण का प्रतीक है।
जगन्नाथ यात्रा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, यह भारतीय समाज की समरसता, समानता और एकता का प्रतीक भी है। इस उत्सव में जाति, वर्ग, धर्म और लिंग की सीमाएं टूट जाती हैं। सभी लोग मिलकर रथ को खींचते हैं और भगवान के दर्शन करते हैं। इस यात्रा का एक प्रमुख संदेश यह है कि भगवान सभी के हैं और वे स्वयं जनता के बीच आकर उन्हें दर्शन देते हैं। पुरी की रथ यात्रा विश्व की सबसे बड़ी चलती तीर्थयात्राओं में से एक मानी जाती है।
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुण ध्वज पर या नंदीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। संध्या तक तीनों ही रथ मंदिर पहुँचते हैं। भगवान मंदिर के सिंहद्वार पर बैठकर जनकपुरी की ओर रथयात्रा करते हैं। जनकपुरी में तीन दिन का विश्राम होता है जहां उनकी भेंट श्री लक्ष्मीजी से होती है। इसके बाद भगवान पुनः श्री जगन्नाथ पुरी लौटकर आसनरुढ़ हो जाते हैं। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला।
दस दिवसीय यह रथयात्रा भारत में मनाए जाने वाले धार्मिक उत्सवों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार ‘जगन्नाथ’ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ ‘गरुड़ध्वज’ या ‘कपिलध्वज’ कहलाता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे ‘त्रैलोक्यमोहिनी’ या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं। रथ ध्वज ‘नदंबिक’ कहलाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को ‘स्वर्णचूडा’ कहते हैं। जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं।
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा की कथा
द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्रीकृष्ण और बलराम अचानक अंत:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अंत:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनों को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था। अचानक नारदजी के आगमन से वे तीनों पूर्ववत् हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।
– शुभा दुबे
